लोकतंत्र के उत्सव का यह निशान जो मेरी और आपकी अंगुलियों में है?वो आने वाले 10 दिन या एक महीने में निश्चित तौर पर मिट जाएगी…
परंतु वर्ष 2018/19 लोकसभा चुनाव के करीब एक हफ्ते बाद दक्षिण पूर्व उड़ीसा के एक अज्ञात स्थान पर एक कम्युनिस्ट विचारक *(ग्रामीण शिक्षा मित्र)* से मेरी निजी चर्चा में कुछ सवाल उठे थे??
हालाकि वो 35 साल का शिक्षित विवाहित युवा ग्रामीण बच्चों और महिलाओं को प्राथमिक स्तर का गणित,भूगोल और विज्ञान पढ़ाने के अलावा ग्रामीणों को समान्य बीमारियों की दवा देने का काम करता था। वो हथियार वादी क्रांति से खुद को दूर रखते हुए भी कम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग और महात्मा गांधी की मिश्रित विचारधारा से प्रेरित था। उनसे प्रेरित होने के लिए उसके पास वजह भी थी। तब उड़ीसा राज्य के इस क्षेत्र के अधिकांश गांव भारत सरकार के अधीन होते हुए भी मूलभूत सुविधाओं *(मसलन पानी,बिजली,सड़क,शिक्षा स्वास्थ्य और पीडीएस)* से वंचित थे.मुख्य मार्ग से करीब तीन से चार घंटे की पैदल यात्रा के बाद एक गांव में हमारी उससे मुलाकात हुई थी। स्थानीय परिचित लोगों ने भरोसा दिलाया था,कि वो ही किसी माओवादी नेता से हमारी मुलाकात करवा पाएगा ?? हालाकि ऐसा हुआ नही दो दिन यहां रहने के बाद भी हमारी मुलाकात किसी नक्सली लीडर से नही हो पाई।।
उससे मिलने पर मेरा पहला सवाल था ? भाई आप ने मतदान नही किया.? आपकी उंगली में मेरी तरह के निशान नही हैं.इन सवालों का जो जवाब उसने मुझे दिया वो आज तक मेरी जहन में जिंदा है,वो अब पुनः याद आया है जब मैं अभी मतदान करने के लिए पंक्ति में पुनः खड़ा हुआ.??
उसने कहा “प्रारंभिक शिक्षा और बारगढ़ में कालेज की पढ़ाई तक मैं भी आपकी तरह सोच रखता था। मतदान करना मेरे लिए भी किसी बड़े त्योहार से कम नही था। लेकिन समय के साथ_साथ जैसे ही सोचने समझने की शक्ति बढ़ी और स्थानीय समस्याओं के बीच प्रशासनिक भ्रष्टाचार से दो चार हुआ मैंने अपने आप को झूठे लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से दूर कर लिया। इसका मतलब ये नही है कि मैं हिंसा और बेमतलब के खून खराबे का समर्थन करता हूं। मेरा दूर दूर तक हिंसा से कोई लेना देना नही है। फिर भी मेरे काम का सम्मान स्थानीय ग्रामीणों के अलावा अंदर के लोग भी करते है। उनसे मेरी मुलाकात तब होती है जब वे हफ्ते दस दिन में हमारे आसपास आते है। अभी बीते एक महीने से वो इस तरफ नही आए है। कब आएंगे ये बता नही पाऊंगा. अंदर के लोग बुरे नही है बस उनके हाथों में हथियार है वे लोग अपनी तरह का व्यवस्था चाहते है,और हम ग्रामीण इस लोकतंत्र में साम्यवाद को देखना चाहते हैं।
खैर उसने मेरे सवाल का जवाब दिया और कहा कि एक बात बताइए *लोकतंत्र में मतदान करना अगर आम नागरिक की जिम्मेदारी है,तो संविधान में मिला आम नागरिक का अधिकार और स्वस्थ,निष्पक्ष व जिम्मेदार प्रशासन देना किसकी जिम्मेदारी है??*
इस पर मेरा जवाब था,हमारी चुनी हुई सरकार का..
उसने पुनः पूछा *अगर वोट देने से देश की सूरत बदलती है,70 साल से मतदान कर रहे आदिवासियों के हालात क्यों नही बदले?? उन्हे अपना गांव,जंगल और जमीन अपनी पहचान क्यों खोना पड़ रहा है??*
मैं निरुत्तर था…
उसने अगला सवाल किया *कि आजादी के 70 साल बाद भी देश के संपत्ति का 80 प्रतिशत हिस्सा महज 5 प्रतिशत लोगों के पास ही क्यों है?? जबकि 95 प्रतिशत आबादी अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा बेमतलब के टैक्स देने व दैनिक जरूरतों के साथ बच्चों की शिक्षा और अपने स्वास्थ्य पर खर्च करने को मजबूर है।*
मैंने सहमति में सिर्फ अपना सर हिलाया..
*(भारत के केवल 21 सबसे बड़े अरबपतियों के पास देश के 70 करोड़ लोगों की सम्पत्ति से भी ज्यादा दौलत है, यानी मोटे तौर देश की आधी दौलत महज 21अरबपतियों के पास है। यह खुलासा एक अंतरराष्ट्रीय एनजीओ ऑक्सफैम इंडिया की हालिया रिपोर्ट में हुआ है।)*
कुछ देर की शांति के बाद उसने अगली बात कही कि *मतदान करने से देश के हालत बदलते तो दुनिया के 10 बड़े भ्रष्टतम देशों में भारत का नाम क्यों है??*
मैं पुनः निरुत्तर रहा..
फिर उसने कहा कि *अगर आपकी तरह वोट देना देश के लिए जरूरी है तो हमारे वोट से चुना हुआ नेता(पार्षद/विधायक/सांसद)लाखों करोड़ों रु लेकर खुलेआम बिकता क्यों हैं??*
मैं कुछ भी बोल नहीं पाया..
वह फिर बोल उठा कि *बताइए अगर मतदान करने से देश का विकास होता है तो देश के 50 फीसदी गांव सड़क,भवन,पीने के साफ पानी,शिक्षा,चिकित्सा और बिजली से वंचित क्यों हैं??*
इस बार मैंने कहा धीरे धीरे ही सही पर स्थितियों में बदलाव आ रहा है.
वह एक और सवाल लेकर खड़ा हो गया कि ऐसा है तो *देश के नागरिकों का मूलभूत अधिकार मुफ्त शिक्षा,अच्छी स्वास्थ्य व्यवस्था,निष्पक्ष और सुलभ न्याय प्रणाली कहां है,आम नागरिकों को न्याय मिलता है या खरीदना पड़ता है,या उससे वंचित रहना पड़ता है.??*
मेरे पास पुनः कोई जवाब नही था।
उसके सवाल जारी थे उसने पूछा *1950 संविधान लागू होने बाद से आज तक देश का नागरिक संवैधानिक अधिकारों से वंचित क्यों है? देश में आज भी जातिगत,धार्मिक,और अलगाववादी हिंसा क्यों है??*
मुझे समझ नही आया मैं क्या जवाब दूं??इससे पहले मैं कुछ बोल पाता उसका अगला सवाल मेरे सामने था..
कि *देश की सुरक्षा और सेवा की जिम्मेदारी गरीब,मजदूर, मध्यम वर्गीय व्यवसाई और नौकरी पेशा परिवार के सर पर ही क्यों है,कोई उद्योगपति या राजनेता के परिवार से लोग क्यों सामने नहीं आते है.??*
मैंने कहा बात तो सही है।
वह फिर पूछा कि *यदि मतदान से ही बदलाव आता है तो आजादी के बाद से ही देश की 1.25 करोड़ नागरिकों पर प्रति व्यक्ति पर कर्ज और कर का बोझ क्यों बढ़ रहा है??*
मैं पुनः मौन रहा..
उसने अगले सवाल में पूछा कि *वोट देने से ही देश की स्थिति सुधरनी थी तो देश का पुलिस और प्रशासन आज भी अंग्रेजी तौर तरीकों पर क्यों चल रहा है??* आपको हमको न्याय,शिक्षा और स्वास्थ्य पाने के लिए हजारों लाखों की रकम क्यों खर्चनी पड़ती है??
इस सवाल का भी मेरे पास कोई जवाब नही था।।
उसने तीन और सवाल किया जैसे *राजनीति अगर समाज सेवा का माध्यम है तो निर्वाचित जन प्रतिनिधि ता_उम्र कर मुफ्त की सरकारी सुविधाएं और पेंशन क्यों पाता है?? वहीं केंद्रीय कर्मचारी और दूसरा नौकरी पेशा वर्ग अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा कर(टैक्स) में देकर भी पेंशन से वंचित क्यों रहता है??*
*देश में हर साल कर्ज और शोषण से परेशान गरीब मेहनत कश किसान तथा देश की सुरक्षा सेवा में लगा जवान ही आत्म हत्या क्यों करता है?? इनकी तुलना में कोई नेता या कारोबारी या भ्रष्ट सरकारी अफसर क्यों अपनी जान नही देते.उन्हे समाज में बदनामी और देश के कानून का भय क्यों नही है.??*
उसके द्वारा मुझसे तमाम ऐसे सवाल मुझसे पूछे गए, *जिसका जवाब मेरे पास तो क्या शायद देश के महामहिम या सी.जे.आई.से लेकर प्रधान मंत्री के पास भी नहीं होगा.??*
फिर भी हर बार कि तरह इस बार मतलब पांच साल के बाद भी अपना मन मारकर इस उम्मीद के साथ लोकतंत्र के इस कथित महापर्व(चुनाव प्रक्रिया) मतदान में हिस्सा लेता हूं।। इस उम्मीद के साथ कि मेरे जिंदा रहने तक मतदान करने से..
शायद,,, *वो सुबह कभी तो आयेगी,,*
*जब इन काली रात के सर से, जब रात का आँचल ढलकेगा*
*जब अम्बर झूम के नाचेगा, जब धरती मोहब्बत के नग्में गायेगी*
*वो सुबह कभी तो आएगी…*
*जिस सुबह की खातिरदारी में जुग-जुग से,हम सब मर-मर के जीते हैं*
*जिस सुबह की अमृत की धुन में, हम हर रोज जहर के प्याले पीते हैं।*
*इन भूखी प्यासी रूहों पर, एक दिन तो करम फ़रमायेगी*
आज भले ही हो न हो पर
मुझे भरोसा है..
*वो सुबह कभी तो आएगी*
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नितिन सिन्हा
संपादक
खबर सार